सरहुल – प्रकृति पर्व | सरहुल कब और क्यों मनाया जाता है

Sarhul Festival

Sarhul Festival

सरहुल एक प्रकृति पर्व है। सरहुल आदिवासियों का मनाया जाने वाला एक प्रमुख पर्व है जो कि वसंत में मनाया जाता है। पतझड़ के बाद पेड़ पौधे खुद को नए पत्तों और फूलो से सजा लेते है, आम मंजरने लगता है सरई और महुआ के फूलो से वातावरण सुगन्धित हो जाता है। जिस प्रकार सखुआ सरई फूल से खुद को सजता है आदिवासी लड़किया और महिलाये अपने जुड़े को सजा लेती है और तब मनाया जाता है सरहुल। सरहुल प्रत्येक वर्ष चैत्र शुक्ल पक्ष के तृतीया से सुरु होता है और चैत्र पूर्णिमा के दिन संपन्न होता है। सरहुल में सखुआ के वृक्ष का विशेष महत्वा होता है। सरहुल के साथ ही आदिवासियों का नव वर्ष का आरम्भ होता है। इस पर्व के बाद ही नई फसल विशेषकर गेहूं की कटाई होती है।

इस पोस्ट में आप देखेंगें

  • सरहुल का अर्थ
  • सरहुल पर्व कब मनाया जाता है
  • सरहुल पर्व कहां मनाया जाता है
  • सरहुल पर्व मनाने की क्या है प्रक्रिया
  • सरहुल में सफेद में लाल पाड़ी वली साड़ी का महत्व
  • सरहुल से जुड़ी प्राचीन कथा
  • सरहुल के अन्य नाम

सरहुल का अर्थ

सरहुल दो शब्दों के योग से बना है “सर” तथा “हुल”, सर का अर्थ होता है “सरई” (सखुआ के फूल को सरई कहा जाता है) और हुल का अर्थ है “क्रांति” अर्थात बदलाव। पतझड़ के बाद वसंत का आगमन होता है और प्रकृति में विशेष बदलाव होता है , इस प्रकार सखुआ के फूलो की क्रांति को सरहुल के नाम  से मनाया जाता है।

सरहुल पर्व कब मनाया जाता है

सरहुल एक प्रकृति पर्व है जो की वसंत में मनाया जाता है। वसंत ऋतु में जब पेड़ पौधे पतझड़ में अपनी पुरानी पत्तियों को गिरा कर नई-नई पत्तियों और फूलों का श्रृंगार करते है, तब सरहुल मनाया जाता है। सरहुल मुख्यतः चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में सुरु होकर चैत्र पूर्णिमा को समाप्त होता है। अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार सरहुल अप्रैल माह में मुख्या रूप से मनाया जाता है। कभी कभी सरहुल मार्च के अंत में भी आ जाता है।

सरहुल पर्व कहां मनाया जाता है

सरहुल आदिवासियों द्वारा मनाया जाने वाला मुख्या त्योहार है। यह पर्व झारखण्ड में प्रमुखता से माया जाता है, इसके अलावा मध्य प्रदेश, ओडिशा,  पश्चिम बंगाल, में भी आदिवासी बहुल क्षेत्रों में बड़े हर्षो उल्लास से मनाया जाता है। सरहुल में पूजा के साथ साथ नृत्य और गायन का भी प्रचलन है।

सरहुल पर्व मनाने की क्या है प्रक्रिया

सरहुल वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला मुख्या त्यौहार है जो कि एक प्रकृति पर्व है।  मुख्यतः यह एक फूलों का त्योहार है। पतझड़ के कारण पेड़ो से जो पत्ते गिर चुके होते है उनमे नए पत्तों और फूलो का आगमन होता है। इस पर्व में साल के पेड़ो में खिलने वाले फूलों का विशेष महत्तव होता है। मुख्यतः सरहुल चार दिन तक मनाया जाता है, जिसकी शुरुआत चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की तृत्य से होती है।

सरहुल पर्व के पहले दिन मछली के अभिषेक किये हुए जल को पुरे घर में छिड़का जाता है। दूसरे दिन गांव का पाहन (गांव का पुजारी )उपवास रखकर हर घर के छत और द्वार पर सरई फूल खोंसता यानी लगाता है। तीसरे दिन तीसरे दिन पाहन उपवास रखता है और सरना (पूजा स्थल ) पर सरई के फूलों की पूजा की जाती है (सखुआ के फूल के गुच्छे को कुञ्ज कहते है ) साथ ही मुर्गी की बलि दी जाती है। चावल तथा बलि की मुर्गी के मांस को मिलाकर “सुंडी” बनायीं जाती है, जिसे प्रसाद के रूप में पुरे गाँव में वितरण किया जाता है। चौथे दिन गिड़ीवा नमक स्थान पर सरहुल फूल का विसर्जन किया जाता है। 

एक परंपरा के अनुसार गाँव  का पाहन मिटटी के तीन पात्र में ताज़ा पानी भरता है और उसे अगले दिन देखता है। अगर पात्रों से पानी का स्टार घाट गया तो वो अकाल की भविष्यवाणी करता है और अगर पानी का स्टार सामान्य रहे तो उसे उत्तम वर्षा का संकेत मन जाता है। सरहुल पूजा में ग्रामीण  को घेर देते हैं।

सरहुल में सफेद में लाल पड़ी वली साड़ी का महत्व

सरहुल पर्व कबढ़ूँ धाम से नाच गा कर मनाया जाता है यहाँ कहावत  बहुत प्रचलित  “नाची से बाँची” अर्थात जो नाचेगा वही बचेगा ,यहाँ  चलना ही नृत्य है और बोलना ही गीत है। इस पर्व में जगह जगह अखाड़ो में नृत्य किया जाता है। महिलाएं सफ़ेद में लाल पाड़  वाली सदी पहनकर नृत्य करती है। सफ़ेद  पवित्रता और शालीनता को दर्शाता है और लाल रंग संघर्ष को। सफ़ेद सिंगबोंगा और लाल बुरुबोंगा का प्रतीक मन जाता है इसलिए सरना झंडा में सफ़ेद और लाल रंग की पट्टी होती है।

सरहुल में केकड़ा का महत्व

सरहुल में केकड़ा का विशेष महत्तव  होता है ,पाहन उपवास रखकर केकड़ा पकड़ता है और केकड़े को पूजा घर में अरवा धागा से बाँध कर टांग दिया जाता है। जब धान की बुआई होती है तो इसका चूर्ण बना कर गोबर में मिलकर इसको डाला जाता है।  है की जिस प्रकार केकड़े के असंख्य बच्चे होते है उसी प्रकार धान की बालिया भी असंख्य होगी। इसलिए सरहुल में केकड़े का  विशेष स्थान है।

सरहुल से जुड़ी प्राचीन कथा

सरहुल से जुडी कई कहानिया प्रचलित है ,उन से एक महाभारत से जुडी एक कथा है। इस कथा के अनुसार जब महाभारत का युद्ध चल रहा था, तब आदिवासियों ने युद्ध में कौरवों का साथ दिया था, जिस कारण कई मुंडा सरदार पांडवों के हाथों मारे गए थे। इसलिए उनके शवों को पहचानने के लिए उनके शरीर को साल के वृक्षों के पत्तों और शाखाओं से ढका गया था।

इस युद्ध में ऐसा देखा गया कि जो शव साल के पत्तों से ढका गया था, वे शव सड़ने से बच गए थे और ठीक थे। पर जो अन्य चीजों से ढ़के गए थे वे शव सड़ गए थे। ऐसा माना जाता है कि इसके बाद आदिवासियों का विश्वास साल के पेड़ों और पत्तों पर बढ़ गया होगा, जो सरहुल पर्व के रूप में जाना जाता है।

सरहुल के अन्य नाम

आदिवासियों आवास स्थलों के विभिन्न क्षेत्रों में सरहुल को भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है।

  • उरांव – खद्दी
  • संथाल – बा परब
  • खड़िया – जकोर

झारखण्ड में सरहुल मानाने के विभिन्न तरीके

झारखण्ड में एक कहावत है कि “सेनगे सुसुन, काजिगे दुरंग” यानी जहां चलना नृत्य और बोलना गीत-संगीत है, यही झारखण्ड का जीवन है। दिन भर हाड़तोड़ मेहनत के बाद रात में पूरा गांव अखड़ा में साथ-साथ नाचता-गाता है, ऐसे में सरहुल को खुशियों का पैगाम मन जाता है। प्रकृति खुद को सजा लेती है फसल से घर और फूलों से जंगल के वृक्ष। मानते है कि प्रकृति किसी को भूखा नहीं रहने देता है।  

 मुंडारी, संथाली और हो-भाषा में सरहुल को ‘बा’ या ‘बाहा पोरोब’, खड़िया में ‘जांकोर’, कुड़ुख में ‘खद्दी’ या ‘खेखेल बेंजा’, नागपुरी, पंचपरगनिया, खोरठा और कुरमाली भाषा में इस पर्व को ‘सरहुल’ कहा जाता है।

मुंडारी : बहा पोरोब में पूर्वजों का होता है सम्मान

मुंडा समाज में बहा पोरोब का विशेष महत्व है, मुंडा प्रकृति के पुजारी होते हैं। सखुआ, साल या सरजोम वृक्ष के नीचे मुंडारी खूंटकटी भूमि पर मुंडा समाज का पूजा स्थल सरना होता है। सभी धार्मिक नेग विधि इसी सरना स्थल पर पाहन (गाँव का पुजारी) द्वारा संपन्न किया जाता है। जब सखुआ की डालियों पर सरई फूल भर जाते हैं, तब गांव के लोग एक निर्धारित तिथि पर बहा पोरोब मनाते हैं।

बहा पोरोब के पूर्व से पाहन उपवास रखते है, यह पर्व विशेष तौर पर पूर्वजों के सम्मान में मनाते हैं। धार्मिक विधि के अनुसार सबसे पहले सिंगबोगा परम परमेश्वर को फिर पूर्वजों और ग्राम देवता की पूजा की जाती है। पूजा की समाप्ति पर पाहन को नाचते-गाते उसके घर तक लाया जाता है, सभी सरहुल गीत गाते हुए नाचते-गाते हैं।

हो समुदाय : तीन दिनों तक बा पोरोब मनता है

‘बा’ का शाब्दिक अर्थ है फूल अर्थात फूलों के त्योहार को ही ‘बा’ पोरोब कहते हैं, बा पर्व तीन दिनों तक मनाया जाता है। सर्वप्रथम ‘बा: गुरि’, दूसरे दिन ‘मरंग पोरोब’ और अंत में ‘बा बसि’, बा गुरि के दिन नए घड़े में भोजन तैयार होता है। घर का मुखिया रसोई घर में मृत आत्माओं, पूर्वजों एवं ग्राम देवता को तैयार भोजन, पानी, हड़िया अर्पित कर घर-गांव की सुख-समृद्धि की कामना सिंगबोंगा से करते हैं।

दूसरे दिन जंगल जाकर साल की डालियां फूल सहित काटकर लाते हैं और पूजा के बाद आंगन-चौखट आदि में प्रतीक स्वरूप खोंसते हैं। तीसरे दिन बा बसि में सभी पूजन सामग्रियों को विसर्जित किया जाता है, रात में पुन: नाच-गान आरंभ  होता है।

उरांव : धरती-सूर्य का विवाह खेखेल बेंजा 

सरहुल के दिन सृष्टि के दो महान स्वरूप शक्तिमान सूर्य एवं कन्या रूपी धरती का विवाह होता है, जिसकी कुड़ुख या उरांव में खेखेल बेंजा कहते हैं। इसका प्रतिनिधित्व क्रमश: उरांव पुरोहित पहान (नयगस) एवं उसकी धर्मपत्नी (नगयिनी) करते हैं। इनका स्वांग प्रतिवर्ष रचा जाता है कि अत्यंत मनमोहक होता है।

उरांव संस्कृति में सरहुल पूजा के पहले तक धरती कुंवारी कन्या की भांति देखी जाती है, धरती से उत्पन्न नए फल-फूलों का सेवन वर्जित है। इस नियम को कठोरता से पालन किया जाता है। पहान घड़े का पानी देखकर बारिश की भविष्यवाणी करते हैं। पहान सरना स्थल पर पूजा संपन्न करता है और तीन मुर्गों की बलि दी जाती है और खिचड़ी बनाकर प्रसाद के रूप में खाते हैं। फिर पहान प्रत्येक घर के बुजुर्ग या गृहिणी को चावल एवं सरना फूल देते हैं, ताकि किसी प्रकार का संकट घर में न आए।

सरहुल के एक दिन पहले केकड़ा खोदने का रिवाज है। केकड़ा को पूर्वजों के रूप में बाहर लाकर सूर्य और धरती के विवाह का साक्षी बनाया जाता है। सरहुल के बाद ही खरीफ फसल की बोआई के लिए खाद और बीज डाला जाता है।

संथाल : विशेष राग-ताल में होता है बाहा नृत्य

बाहा संथालों के प्रकृति से प्रेम को दर्शाता है। प्राचीन काल से साल एवं महुआ को देव स्वरूप मानकर पूजने की प्रथा रही है। बाहा फागुन का चांद निकलने के पांचवें दिन शुरू होता है और पूरे महीने चलता है। जाहेरथान (पूजन स्थल)में इष्ट देव की पूजा पारंपरिक विधि विधान के साथ की जाती है। मुर्गा बलि के बाद खिचड़ी बनाई जाती है जिसे प्रसाद के तौर पर लोग ग्रहण करते हैं।

दूसरे दिन लोग जाहेरथान में उपस्थित होते हैं। नायकी सखुआ फूल एवं पारंपरिक सामग्री संग पूजा करते हैं। तीसरे दिन फागु या बाहा सेंदरा मनाते हंै। घर के पुरुष सेंदरा से लौटते हैं तो धनुष अौर सारे अस्त्र-शस्त्र को खोला जाता है। बाहा नृत्य होता है, जिसमें महिलाएं अकेली नृत्य करती हैं, पुरुष वाद्ययंत्र बजाते हैं। विशेष राग में गीत और नृत्य होता है।

खड़िया: जांकोर में घड़े के पानी से भविष्यवाणी

खड़िया समुदाय ‘जांकोर’ पर्व मनाता है। जांग+एकोर अर्थात फलों-बीजों का क्रमवार विकास। पर्व फागुन पूर्णिमा के एक दिन पहले शुरू हो जाता है। इसी दिन उपवास रखा डाता है। पुरुष दिन में शिकार करने चले जाते हैं। उसी शाम को एक भार पानी (दो नए घड़ों में) ले जाकर रख दिया जाता है।

दूसरे दिन पाहन पूजा के बाद बलि देता है। दोनों घड़े का पानी देखकर पहान पूर्ण वर्षा होने, न होने की भविष्यवाणी करते हैं। लोगों को सखुआ फूल देकर आशीर्वाद देते हैं। कार्यक्रम के आरंभ से अंत तक ढोल, नगाड़े एवं शहनाई भी बजते हैं। इसी दिन शाम में पाहन सेमल वृक्ष में धाजा-फागुन काटते हैं। फिर इस डाली को लोग अपने घरों में खोंस देते हैं। तीसरे दिन फूलखोंसी का कार्य प्रत्येक गांव में किया जाता है।

Leave a Comment