टुशु पर्व | Tusu Mela | Jharkhand

मकर संक्रांति के दिन टुसू पर्व झारखण्ड के विभिन्न क्षेत्रों में मनाया जाता है, और फिर उसके अगले दिन इसे नदी में प्रवाहित किया जाता है। मकर संक्रांति के एक दिन पहले पुरुषों द्वारा बिना बाजी के मुर्गा लड़ाने  का कार्यक्रम होता है जिसे बाउड़ी कहा जाता है। इस उत्सव से लौटने के बाद सारी रात लोग गाते- बजाते हैं। सुबह सभीलोग मकर स्नान के लिए नदी पहुंचते हैं, स्नान के दौरान गंगा माईया का नाम लेकर मिठाई भी बहाते हैं। उत्सव और मेले का  भरपूर आनंद लेने के बाद टुसू का विसर्जन नदी में गाजे-बाजे के साथ किया जाता है। 

जब सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है और खेतों में तैयार नई फ़सल के स्वागत में जब भारतवर्ष के अधिकांश लोग मकर सक्रांति का त्यौहार मनाते हैं, तब जंगलों और पहाड़ों के ग्रामीण,आदिवासी अपनी बेटी टुशुमनी के बलिदान की याद में राज्य का पारंपरिक त्यौहार टुशु मनाते हैं। टुशु का त्यौहार मुख्यत: झारखण्ड के अलावा उड़ीसा और बंगाल राज्य के भी कई क्षेत्रों में भी धूम-धाम से मनाया जाता है। बंगाल के पुरूलिया, बांकुड़ा, मिदनापुर आदि में भी लोग इस त्यौहार का मज़ा लेते देखे जा सकते हैं। उड़ीसा के मयूरभंज, क्यौझर और सुंदरगढ़  जिले में भी टुशु पर्व की अच्छी-खासी रौनक देखने को मिलती है, यहां भी लोग इसे बड़े धूम धाम से मानते हैं।

टुसु की कहानी और इतिहास

टुसु पर्व के पीछे कई लोक कथाएँ प्रचलित है। कहा जाता है टुसु एक गरीब कुर्मी किसान की बेटी थी। वो बहुत ही सुन्दर थी। धीरे धीरे उसकी सुंदरता के चर्चे पुरे राज्य में होने लगा। ये बात जब एक क्रूर राजा के दरबार में पहुँची तो राजा को लोभ हो गया। राजा ने टुसु को हासिल करने के लिए षड़यंत्र रचना सुरु कर दिया। एक वर्ष राज्य में भीषण आकाल पड़ा जिसके कारण फसल नहीं हुई। किसान लगान  देने की स्तिथि में नहीं थे। इस स्तिथि का फ़ायदा उठाने के लिए राजा ने लगान  दो गुना कर दिया और जबरन लगान वसूलने का आदेश दे दिया। पुरे राज्य में हाहाकार मचा हुआ था तभी टुसु ने सभी किसानो को संगठन बना कर राजा  का विरोध करने को कहा। सैनिको और किसानो को बीच भीषण युद्ध हुआ, हज़ारो किसान मारे गए। टुसु भी सैनिको के गिरफ्त में आने वाली थी, पर उसने राजा के आगे झुकने और आत्मसमर्पण से बेहतर जल समाधी लेकर शहीद हो जाने का फैसला किया। उफनती नदी में कूद कर उसने जल समाधी ले ली। टुसु की इस क़ुरबानी को याद में हर वर्ष टुसु पर्व मनाया जाता है। टुसु की प्रतिमा बनाकर हर वर्ष  नदी में विसर्जित किया जाता है और श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है। टुसु कुंवारी कन्या थी इसलिए टुसु पर्व में कुंवारी लड़कियों की विशेष भूमिका होती है।

टुशुमनी की कहानी

एक प्रचलित लोक कथा टुशुमनी से जुडी हुई है।  कहा जाता है टुशुमनी एक बहुत ही सुन्दर कन्या थी। उसका जन्म एक कुर्मी किसान के घर में हुआ था। उसकी सुंदरता की चर्चा हर तरफ थी।  उस समय के बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के सैनिको की नजर टुशुमनी पर थी। एक दिन उन सैनिको ने बुरे नियत से टुशुमनी का अपहरण कर लिया। पर जैसे ही नवाब को पता चला तो नवाब ने टुशुमनी को सम्मान के साथ आजाद कर दिया और सैनिको को कड़ी सजा दी। पर जब टुशुमनी घर लौटी तो रूढ़िवादी समाज ने टुशुमनी को स्वीकारने के मन कर दिया और उसकी पवित्रता पर सवाल उठा दिया। इस घटना से टुशुमनी बहुत आहात हुई और उसने दामोदर नदी में जल समाधी लेकर अपने प्राण त्याग दिया। कहा जाता है की उस दिन मकर संक्रांति का त्यौहार था। इस घटना ने पुरे कुर्मी समाज को आहात कर दिया, विशेषकर कन्याओं को। कुर्मी समुदाय ने तब से टुशुमनी के बलिदान एवं पश्चाताप  सम्मान में टुसु पर्व का आयोजन सुरु किया, जिसे आज झारखण्ड के कुर्मी,आदिवासी, अन्य जनजाति और बाकि समुदाय भी मानते हैं। इस दिन झारखण्ड में सरकारी अवकाश रहता है।

ऐसे मानते है टुशु पर्व

झारखण्ड के ग्रामीण क्षेत्रों में टुसु पर्व बड़े धूम धाम से मनाया जाता है। टुशुमनी की मिटटी की मूर्ति बनायीं जाती है। टुशुमनी की पूजा मकर संक्रांति से एक माह पूर्व से सुरु हो जाती है। यहाँ कुर्मी तथा आदिवासी समाज के घर घर में टुशुमनी की मूर्ति स्थापित की जाती है और उसकी पूजा की जाती है। टुशुमनी की कोई स्थायी मंदिर कहीं  नहीं है। टुसु पर्व का समापन मकर संक्रांति के दिन बड़े भव्य तरीके से होता है। इस दिन मूर्ति को नदी में विसर्जित कर दिया जाता है। विसर्जन के दिन टुशुमनी का कर उसे एक आकर्षक पालकीनुमा मंदिर में रखा जाता है। 

कुछ लड़कियां तो दस फीट  ऊँची पालकी भी बनती है। इस पालकी को सिर्फ कुंवारी लड़कियां ही बनती है ऐसी परंपरा चली आ रही है। टुशुमनी की मूर्ति को लोक गीतों के साथ नाचते गाते ले जाया जाता है। ये पारंपरिक  लोक गीत टुशुमनी के सम्मान में गया जाता है, जिसे आदिवासी अपनी पवित्र देवी मानते है। नदी के तट  पर टुशुमनी की प्राथना की जाती जाती है तथा प्राथना के बाद प्रतिमा को नदी में विसर्जित कर दिया जाता है।  

टुसु पर्व के अवसर पर स्थानीय आदिवासी अपने घरों में चावल, गुड़ तथा नारियल से बानी एक विशेष मिठाई और पिता बनाते है। टुसु पर्व में मनोरंजन के लिए मुर्गा लड़ने की परंपरा चली आ रही है। विभिन्न प्रकार की प्रतियोगिताओं  का आयोजन भी किया जाता है जिसमे हब्बा-डब्बा मुख्या है। इस औसर पर विभिन्न सामाजिक संगठन भी हिस्सा लेते है और प्रतियोगिताओं  का आयोजन करवाते है। झारखण्ड के पर्व में हड़िया न हो ऐसा तो हो ही नहीं सकता। लोग मिलकर  हड़िया का सेवन करते है और नाचते गाते है। ग्रामीण क्षेत्रों में  आयोजन कई दिनों तक किया जाता है।

टुसु मेला का आयोजन

कुछ कुछ को छोड़ कर सभी टुसु मेलों का आयोजन मकर संक्रांति के बाद ही अलग-अलग तिथि में  किया जाता है। अघन संक्रांति से लेकर मकर संक्रांति तक टुशुमनी की सेवा की जाती है। घर से लेकर नदी तक अलग अलग टोलियों  में आदिवासी जुलुस के रूप में निकलते है और टुसु गीतों पर नाचते हुए नदी तक जाते है। नृत्य मंडली अलग अलग गाँव से सस्ती है और नदी किनारे नृत्य करती है और लोग नदी के ऊपरी स्थल पर खड़े होकर नृत्य का आनंद लेते है। नृत्य मंडल अलग अलग गाँव  से आती है जिसमे टुसु कन्या के प्रतीक के रूप में चौड़ल और पारम्परिक वाद्य यन्त्र जैसे ढोल , नगाड़ा ,बांसुरी, मांदर और अनेक वाद्य यंत्रों के धुन में नाचते डेगते हैं। वैसे तो लोग पुरे रस्ते नाचते हुए आते है पर नदी के तात पर ये दृश्य अत्यधिक मनमोहक हो जाता है लोग उमंग से भर जाते है। इसे देखने के लिए दर्शको की भीड़ दूर दूर से आती है मन-मष्तिष्क हर्ष से भर जाता है। ऐसा दृश्य मकर संक्रांति के बाद लगने वाले मेलो में देखने को मिलता है। 

इस अवसर पर  झारखंड और बंगाल की सीमा पर स्थित स्वर्णरेखा नदी तट पर आयोजित  होने वाला सतीकहाट मेला बहुत प्रसिद्ध है। यह मेला पौराणिक काल से लगती आ रही है। इस स्थान पर इस क्षेत्र के तीन प्रमुख नदि  स्वर्णरेखा, कांची और राढू का संगम होता है ,इस वजह से यह स्थान बहुत पवित्र मन जाता है। मेला देखने आये सभी श्रद्धालु सबरनी माता की आराधना करते है। नदी में हाथ धोकर गुड़ पीठा और मुढ़ी खाने का भी रिवाज है। मकर संक्रांति को पंचपरगना, बंगाल तथा झारखण्ड के लाखो श्रद्धालु यहाँ सतीकहाट पर स्नान करने आते है। यह मेंला दो दिनों तक आयोजित होता है।  मकर संक्रांति के दिन सुरु होकर दूसरे दिन तक रहता है। लाखो श्रद्धालु टुसुकन्या  को विसर्जित करने पहुँचते है जिस कारण बड़े क्षेत्र में मेला का आयोजन होता है। टुसुकन्या के विसर्जन के सतह ही शाम को मेला का समापन हो जाता है। सतीकहाट टुसू मेला के साथ ही विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग दिन मेला का आयोजन होना सुरु हो जाता है जो की वसंत पंचमी तक चलता है। पुरे पूष माह में अलग अलग जगहों पर टुसु मेला का आयोजन होता है। 

प्रमुख टुसु मेला

  • हाराडी बुडा़ढ़ी टूसू मेला-सतीक हाट मेला के दिन
  • हरिहर टुसू मेला-सतीक हाट मेला के दूसरे दिन 
  • हुडरू टुसू मेला-सतीक हाट मेला के दिन
  • राजरप्पा टुसु मेला -सतीक हाट मेला के दिन 
  • हाथिया पत्थर मेला, फूसरो
  • छाता पोखईर मेला 
  • माठा मेला। 
  • जयदा मेला 
  • पड़सा मेला 
  • हिड़िक मेला 
  • बुटगोड़ा मेला
  • सालघाट मेला 
  • बूढ़हा बाबा जारगोडीह मेला। 
  • राम मेला
  • भूवन मेला (कुईडीह) 
  • कारकिडीह मेला
  • पुरनापानी मेला (हाड़ात) 
  • सीता पाईस्ज मेला
  • पानला मेला
  • सुभाष मेला।(सुईसा)
  • बूढ़हाडीह मेला
  • बानसिंह मेला
  • सिरगिटी मेला
  • बेनियातुंगरी मेला
  • कुलकुली मेला
  • जोबला मेला 
  • इंचाडीह मेला 
  • दिवड़ी मेला
  • सूर्य मन्दिर मेला 
  • नामकोम टुसू मेला,रांची 
  • मोरावादी टुसू मेला
  • लादुपडीह टुसू मेला
  • डिरसीर-मुरूरडीह मेला
  • बांकू टूसू मेला 
  • टायमारा टुसू मेला 
  • आड़िया नदी टुसू मेला
  • घुरती सतीक हाट मेला

पूरे पौस मास तक अलग अलग जगह में टूसू मेला का आयोजन किया जाता है।  पूरे हर्षोल्लास के साथमिल जुलकर  टुसु पर्व मनाया जाता है। इस तरह के मेलों का आयोजन सामान्य तौर पर किसी अन्य पर्व-त्यौहारों में नहीं देखा जाता है । भारत के  प्रसिद्ध कुंभ मेला के बाद टूसू पर्व ही एक मात्र ऐसा पर्व है जो पूरे दो महीने तक लगातार अलग-अलग जगहों पर आयोजित होता है। विशेष कर नदी के किनारों में, टुंगरी अर्थात ऊँचे टीलों में, पहाड़ो में, धार्मिक स्थलों पर विशेष रुप से टूसू पर्व का आयोजन होता है।  इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि टुसू मेला का कितना महत्व है। आज टुसु पर्व संपूर्ण पंचपरगना ही नहीं, पुरे झारखंड का प्रमुख त्यौहार हैबन गया है जिसको मानने वाले झारखंड के सभी जाति विशेषकर कुर्मी, महतो, साहु, बनिया, तेली, गोवार, कुम्हार, अहिर, मुंडा, संस्थाल, उरांव, हो, कोइरी, गोसाईं, सूढ़ी, मानकि, मांझी आदि मुख्य है। अनेक जातियों के समुदाय सभी आपस में मिलजुलकर पुरे हर्षोल्लास के साथ टुसु पर्व मनाते हैं। यह पर्व झारखंड की संस्कृति के पोषक स्वरूप है, जिसमें पुस गीत, नृत्य, वाद्य यंत्रों की मधुर संगीत है। इसमें एक विशेष प्रकार की रस्म है जिसमे एक विशेष प्रकार की मान्यता है। इसमें नये वस्त्र पहने का विशेष महत्व है। परिवार के सभी लोगों के लिए नये कपड़े लेने का रिवाज होता है। इस प्रकार टुसु पर्व धार्मिक विश्वास, पारंपरिक मान्यता, अच्छे फसल की प्राप्ति, नये वर्ष के आगमन, और खुशहाली के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है।

पीठा का महत्व

वैसे तो झारखण्ड के किसी भी त्यौहार को पीठा के बिना अधूरा मन जा सकता है पर टुसु पर्व में पीठा  का विशेष महत्व होता है। आखाईन जातरा के बाद फाल्गुन महीना तक सभी सगे समबन्धि, रिश्तेदारों के घर “गुड़ पीठा” पहुँचाया जाता है विशेष कर बेहेन और बेटी के घर । गुड़ पीठा पहुँचाने की इस नेग (रिवाज,प्रथा) को “कुटुमारी” कहा जाता है। रिश्तेदार, सगे समबन्धियों  को कुटु्म्ब कहा जाता है। गुड़ पीठा तीन तरह काबनाया जाता है।

  • थापा पीठा (आबगा गुड़ पीठा) 
  • गरहोवआ पीठा  (जल दिया पीठा/गुला पीठा) 
  • मसला पीठा

टुसु के अन्य नाम

यह परब मुख्यतः तीन नामों से जाना जाता है . 

  • टुसु परब 
  • मकर परब 
  • पूस परब

इन तीनो के अलावा बांउड़ी एवं आखाईन जातरा का भी एक विशेष महत्त्व होता  है। बांऊड़ी के दूसरे दिन या मकर सक्रान्ति के दूसरे दिन “आखाईन जातरा” का आयोजन किया जाता है। कृषि कार्य समापन के साथ ही एक नए साल में फिर से हकेति बाड़ी के काम का नया शुरुआत होता है। बांउड़ी तक खलिहान का कार्य समाप्त कर आखाईन जातरा के दिन कृषि कार्य का प्रारंभ होता है। नये वर्ष में  घर के सदस्य के द्वारा सुबह नहा धोकर नये कपड़े पहनकर उगते सूर्य की पहली किरण पर हारघुरा (जोतना) यानी (बोहनी) हाईल पून्हा नेग संपन्न किया जाता है।  खेत में हार (हल) तीन या पांच या सात बार घुमाकर बैलों को हार जुआईट (बैलो के जो दोनों बैलो के गर्दन पर लादी जाती है) के साथ घर लाकर आंगन में दोनों बैलों के पैरों को धोकर उनके पैरों पर तेल मखाया (लगाया ) जाता है। उसके बाद हल जोतने गये किसान गोबरडिंग (बहूत सारा गोबर रखने की जगह) में गोबर काटकर खेती बाड़ी काम की शुरूआत करता है। किसान के घर घुसने के पहले उसके पैर धोकर तेल लगाया जाता है। उसके बाद घर के सभी पुरुषो के पैर धोकर तेल लगाया जाता है। यह काम घर की मां या बड़ी बहु करती है। इस प्रकार यह दिन कुर्मी एवं आदिवासी जनजातीय समुदायों और किसानों के लिए विशेष महत्व रखता है। आखाईन जातरा का दिन हर तरह के काम के लिए बहुत शुभ माना जाता है। बड़े बुजुर्ग के नुसार इस दिन नया घर बनाने के लिए बुनियादी खोदना या शुरू करना अति उत्तम माना जाता है। इसमें कोई पाँजी पोथी का जरूरत नहीं पड़ती है। इस दिन को नववर्ष के रूप में भी मनाया जाता है। टुसू पर्व में किसी किसी गाँव में मकर सक्रान्ति के दिन “फअदि” खेल एवं आखाईन जातरा के दिन “भेजा बिन्धा” का भी नेगाचरि (रिवाज) है।

टुसु में गायी जाने वाले गीत और प्राथनाएं

आमरा जे मां टुसु थापी,अघन सक्राइते गो।
अबला बाछुरेर गबर,लबन चाउरेर गुड़ी गो।।

तेल दिलाम सलिता दिलाम,दिलाम सरगेर बाती गो। 
सकल देवता संझ्या लेव मां,लखी सरस्वती गो।।
 
गाइ आइल' बाछुर आइल',आइल' भगवती गो। 
संझ्या लिएं बाहिराइ टुसू, घरेर कुल' बाती गो।।
 
आगहनअ सांकराईते टुसु,हाँसे हाँसे आबे गो।
पूसअ साँकराईते टुसु,काँदे काँदे जाबेगो ।।

 
उपोरे पाटा तअले पाटा,ताई बसेछे दारअगा ।
छाड़ दारअगा रास्ता छाड़अ,टुसु जाछे कईलकाता।।

एक सड़अपे दूई सड़अपे,तीन सड़अपे लक चोले।
हामदेर टुसु एकला चोले,बिन बातासे गा डोले।।

इस प्रकार टुसू घुमाने के दिन से यह टुसू में नाचने गाने का शुरुआत होती है। जो बसंत पंचमी तक चलती है। मकर संक्रांति एवं पौस संक्रांति पर लगने टुसु मेलालों में गाजे – बाजे  के साथ आस पास के गांवों के लोग समूहों में टुसु गीत गाते नाचते हुए मेला में आते हैं और मेलाओं में टुसू को घुमाया जाता है।

1 thought on “टुशु पर्व | Tusu Mela | Jharkhand”

  1. Tusu mela is very important in our village

    Reply

Leave a Comment